Thursday 8 December 2011

वो कहते हैं कि कहीं कोई शोषण नही है....

वो कहते हैं कि कहीं कोई शोषण नही है
हड्डियों का ढांचा डाइटिंग है कुपोषण नही है

फ़टे कपड़ों के अंदर झांकती बेशर्म नज़रें
कैसे कोई समझाये इन्हे कि ये फ़ैशन नही है

मिटती ही नही भूख उसकी वो क्या करे
नही तो यहां कोई किसी का दुश्मन नही है

आटा चावल दाल ये रोज़ के तमाशे हैं
इन सब पर विचारना कोई चिन्तन नही है

कौड़ियों में मिलते हैं मजबूरी के मारे यहां
जिसकी मर्जी छोडे जाये कोई बंधन नही है

धर्मेन्द्र मन्नु

Saturday 26 November 2011

बिन तेरे कुछ भी ना बटा...

बिन तेरे कुछ भी ना बटा
दर्द एक पल को ना घटा

ज़माने के हाथ में खंजर
चुभे जिस दर को मैं सटा

मांगने गया थोड़ी सी सीख
बदले में मेरा अंगूठा कटा

किस गली में ढूंढू तुझे खुदा
तू भी तो है कुनबों में बंटा

धर्मेन्द्र मन्नु

Wednesday 9 November 2011

ज़िन्दगी समन्दर सी रही....

ज़िन्दगी समन्दर सी रही
प्यास फिर भी बाकी रही

कुछ तुमने कहा कुछ हमने
बात मगर फ़िर भी बाकी रही

रात गुजरी उनके ख्यालों में
सुबहा हुई तो नींद जाती रही

लहरों जैसी रही ज़िन्दगी
सांस आती रही जाती रही

सुबह तक सब ठीक ही था
रौशनी बाद में जाती रही

धर्मेन्द्र मन्नू

Wednesday 21 September 2011

फिर हल्की सी बरसात हुई खैर नही है....

फिर उनसे मुलाकात हुई खैर नही है
फिर दर्द की शुरुआत हुई खैर नही है

सुनते थे जो फ़साने कभी दोस्तों से हम
वो घटना मेरे साथ हुई खैर नही है

आसमान को देखने लगा हुं आज कल
फिर पंछिओं से बात हुई खैर नही है

उन्से मिल कर वक्त का पता नही चला
कब दिन हुआ कब रात हुई खैर नही है

सदियों की प्यास है, भला कैसे बुझे पल में
फिर हल्की सी बरसात हुई खैर नही है


धर्मेन्द्र मन्नू

Thursday 15 September 2011

बिन तेरे कहां घर कुछ भी नही....

ज़िन्दगी प्यार वफ़ा कुछ भी नही
मैं तेरे वास्ते अब कुछ भी नही

जब हरा था तो पत्थरें खाया
एक सूखा सा शजर कुछ भी नही

दर्द जो बहता है तो बहने दो
आंसूओं की ये लहर कुछ भी नही

कौन समझेगा इस अफ़साने को
एक बिगड़ी सी बहर कुछ भी नही

चोंच में तिनके लिये उड़ता रहा
बिन तेरे कहां घर कुछ भी नही
धर्मेन्द्र मन्नू

Friday 26 August 2011

उनके होंठो पे रुसवाई का बहाना होगा....

दर्द को कही गहरे में छुपाना होगा
सबके सामने हंसना मुस्कुराना होगा

पल पल टूटते हैं विश्वास के किले
ताश के पत्तों को फ़िर से सजाना होगा

भरम रखना है मोहब्बत का दिल में
उस गली में अब रोज़ आना जाना होगा

चुभते हैं कांटे ये उनकी फ़ितरत है
फूलों को अपना दामन बचाना होगा

ऐ लब कभी भूले से नाम ना लेना
उनके होंठो पे रुसवाई का बहाना होगा

धर्मेन्द्र मन्नू

Thursday 11 August 2011

रोना धोना छोडो यारों...

रोना धोना छोडो यारों
बांह की पेंचें मोडो यारों

बातों से ना कोई सुना है
अब ना हथेली जोडो यारों

सूरज निकल चुका है कब का
अपनी आंखे खोलो यारों

बहरी दुनिया को समझाने
अपनी जुबां से बोलो यारों

जो करती है वार तुम्ही पर
उन हाथों को तोड़ो यारों

धर्मेन्द्र मन्नू

कैसा हो रहा है असर आज पहली बार...

कैसा हो रहा है असर आज पहली बार
होश है न अपनी खबर आज पहली बार

उस शोख से निग़ाह जबसे आज मिली है
हर तरफ़ हैं उसके नज़र आज पहली बार

इस गली से उस गली ढुंढा किये उन्हे
ज़िन्दगी बनी है सफ़र आज पहली बार

मंदिर की ख्वाईश है ना मस्ज़िद का ज़िक्र है
कुफ़्र न खुदा की फ़िकर आज पहली बार

सूरज भी चांद जैसा लगे कैसा है भरम
शाम भी लगे है सहर आज पहली बार

धर्मेन्द्र मन्नू

Thursday 14 July 2011

जब बम के गोले बजते है...

जब बम के गोले बजते है
तब हम नींदों से जगते है

दो चार गालियां देते है
दो चार सिसकियाँ लेते हैं

दो चार फाइलें इधर ऊधर
दो चार अफसरान इधर उधर

कुछ दिन को आफत आती है
आपा - धापी दे जाती है

कुछ दिन में सब पहले जैसा
फिर वही माजरा होता है

सोने वाले सो जाते हैं
सब अपने कामों में लगते है

धर्मेन्द्र मन्नू

दिल जो तुमने पहलू में छुपा के रखा है....

दिल जो तुमने पहलू में छुपा के रखा है
उसने ही तो दीवाना मुझे बना के रखा है

हमसे नज़र चुराने की कोई तो हो वज़ह
बोलो कहां पे हमसे नज़र बचा के रखा है

जाओ कहां हमसे नज़र बचा के जाओगे
हर राह पे हमने नज़र बिछा के रखा है

कह दो सनम आओ कभी अपना हालेदिल
अपने लबों पे ताला क्यों लगा के रखा है

अपने हर एक ख्वाब की तबीर तुमसे है
तुम्हारे लिये ख्वाब हर सजा के रखा है

धर्मेन्द्र मन्नू

Friday 24 June 2011

दीपावली में दिल जलता है…

दीपावली में दिल जलता है…

रौशनी की राह को तकती हैं निगाहें
मन का अन्धेरा मगर नही छटता है

दीपावली में दिल जलता है…

निराशा की आंधी आशाओं का दीया
कभी बुझता है कभी जलता है

दीपावली में दिल जलता है…

मन में मिलन की आस लिये
आंखों में इन्तज़ार पलता है

दीपावली में दिल जलता है…

धर्मेन्द्र मन्नु

Tuesday 21 June 2011

मैं जानता हूँ दर्दे-जिगर ठीक नही है....

मैं जानता हूँ दर्दे-जिगर ठीक नही है।
पर क्या करूँ मैं, मेरी उमर ठीक नही है।

वो कहते हैं, मस्ज़िद में खुदा ही नहीं होता
विश्वास है, झुक जाती कमर ठीक नही है।

जब भी किसी की उँगली उठी, खूँ उबल पडा
मैं मानता हूँ ज़िक्रे-समर ठीक नही है।

जी चाहता है उनको मैं ग़जल में ढाल दूँ
पर क्या कहूँ मैं, मेरी बहर ठीक नही है।

ऐसा है रास्ता, कोई मंज़िल नही जिसकी
सब कहते हैं कि ऐसा सफ़र ठीक नही है।

धर्मेंद्र मन्नू

जाने भी दो दोस्तों अब क्या हुआ...

जाने भी दो दोस्तों अब क्या हुआ
दिल मेरा टूटा अगर तो क्या हुआ

दर्द की चादर लपेटे अश्क में
भीगा है चेहरा मेरा तो क्या हुआ

सर्द आहें बन गई है ज़िन्दगी
ज़ख्म जो गहरा हुआ तो क्या हुआ

कहकशां की भींड़ मे तारे बहुत
कोई ना मेरा हुआ तो क्या हुआ

अब तो अपनी ज़िन्दगी ही रात है
सहर ना मेरा हुआ तो क्या हुआ

Dharmendra mannu

ज़िन्दगी की जेब से खुशियां चुरायें हम...

आओ ग़मों को भूल कर कुछ मुस्करायें हम
ज़िन्दगी की जेब से खुशियां चुरायें हम

है रात तन्हा तन्हा सवेरा है बहुत दूर
रौशनी के वास्ते दीपक जलायें हम

रंगों से खेलने की उमर बीती नही अभी
एक दूसरे को आओ ये यकीन दिलायें हम

अपने तखय्युल को हम परवाज़ क्यों न दें
चांद सितारों को चलो छू के आयें हम

एक दूसरे के ग़म से क्या है अजनबी रहना
एक दूसरे को अपना ग़म-ए-दिल बतायें हम

धर्मेन्द्र मन्नू

ज़ुल्मों की दास्तान बाकी है ....

ज़ुल्मों की दास्तान बाकी है
सब्र के इम्तहान बाकी हैं

अभी तो चंद लम्हे बीते हैं
अभी उम्रे तमाम बाकी हैं

अभी तो पलके थोडी भींगी हैं
आंसूओं के तुफ़ान बाकी हैं

तुमको जो कहना था कह डाला है
अभी मेरी ज़बान बाकी है

अभी तो धुधलका सा छाया है
अभी तो काली रात बाकी है
धर्मेन्द्र मन्नू

Thursday 16 June 2011

अब किसी का नही एहसान लुंगा...

अब किसी का नही एहसान लुंगा।
वक्त का खुद ही इम्तिहान दूंगा।

दर्द को हद से गुज़र जाने दो
अब ना इसकी कोई दवा लूंगा।

कतरा कतरा से प्यास बुझती नही
डूब भी जाऊं तो दरिया लूंगा ।

कोइ अपना नही ज़माने में
किसको क्या दुंगा और क्या लूंगा।

ज़िन्दगी दर्द है रुसवाई है
क्यों भला तुझको मैं सदा दूंगा।
Dharmendra mannu

Sunday 12 June 2011

लहू के रंग ही भर जाए तो अच्छा होगा...

दर्द जो हद से गुज़र जाए तो अच्छा होगा
दर्द ही गर दवा बन जाए तो अच्छा होगा

वक्त है बेवफ़ा न इसपे भरोसा करना
वक्त गर अजनबी बन जाए तो अच्छा होगा

सफ़ेद सफ़हे हैं सारे हमारी ज़िन्दगी के
लहू के रंग ही भर जाए तो अच्छा होगा

हमारी कश्ती तो साहिल पे अक्सर डूबी है
मौजों से दोस्ती हो जाये तो अच्छा होगा

कब तलक बेकरारी कब तलक ये इन्तज़ार
आग ये ठंढी ही हो जाए तो अच्छा होगा

ठहरे पानी सी हो गई है ज़िन्दगी यारों
इससे तो मौत ही आ जाए तो अच्छा होगा

Dharmendra mannu

Wednesday 8 June 2011

उनकी आदतें हमारी ज़रुरतों पे भारी है…

उनकी आदतें हमारी ज़रुरतों पे भारी है…
उनकी अपनी कैसी यारी है…

होठो पे चिपके हैं मीठे बोल पर
आस्तीन में छीपी एक कटारी है…

उनके घर का कुत्ता होना फ़क्र है
आदमी होना तो एक बिमारी है...

हम तुम वो कौन यहां किसका है
रिश्ते व्यापार हैं दुनिया व्यापारी है

तू खा ले मुझे मैं उसको खाऊंगा
कोई छोटा तो कोई बड़ा शिकारी है

जानता हूं तु मेरी नही हो सकती
पैसा यहां प्रेम पे सदियों से भारी है
धर्मेन्द्र मन्नु

4. ग़म में क्यूं आंख भिगोई जाए ...

ग़म में क्यूं आंख भिगोई जाए
ग़म ए ज़िन्दगी रंगीन की जाए

चोट जब भी लगे मुस्काएं हम
दर्द में होंठो पे हंसी आए

जो गया बीत उसको जाने दो
आने वाले वक्त की सोची जाए

तन्हाई से है घबराना क्या
खुद से ही बात कोई की जाए

खोल दो खिडकियां दरवाज़े सब
घरों में कुछ तो रौशनी जाए

दुश्मनी दिल से निकालो जो कभी
प्यार की बात कोई की जाए

Dharmendra mannu

Wednesday 1 June 2011

3. मुझको रोको न वफ़ा करने दो...

मुझको रोको न वफ़ा करने दो।
अपनी क़दमों के तले मरने दो।

तेरी गली में आज जाना है
आज की रात तो सवरने दो ।

कभी तो लब पे आह आएगी
अपनी नज़रों के आगे जलने दो।

अब तो ये ज़िन्दगी नही भाती
अपने वादे से अब मुकरने दो।

खुली है आंख इन्तज़ार तेरा
ना करो देर अब गुज़रने दो।

DHARMENDRA MANNU

२. आपकी नज़रों का जादू चल गया

आपकी नज़रों का जादू चल गया
बुझती आंखों में दीया सा जल गया

हम ग़मों की भींड में गुमनाम थे
एक इशारा हमको तन्हा कर गया

देखता हूं आपको देखूं जहां
सारा मंजर आप ही में ढल गया

आपकी परछाईयों के साये में
मौत भी अब ज़िन्दगी में ढल गया

DHARMENDRA MANNU

१. पत्थरों का शहर है प्यार नही....

पत्थरों का शहर है प्यार नही
दर्द है ठोकरें है यार नही।

जिससे कह दें दिल की बातें अपनी
इस मकान में कोई दीवार नही।

जो भी मिलता है सज़ा देता है
इस क़दर हम भी गुनह्गार नही।

हर सदा मुझको लौट आती है
कोइ सुनता मेरी पुकार नही ।

हम एक पल में छोड दें ये शहर
कह दो मेरी कोई दरकार नही।

Sunday 22 May 2011

हम भी हैं आपके दीवाने शहर में...

हैं और भी खुबसूरत फ़सने शहर में
हम भी है आपके दीवाने शहर में ।

हर गली में सैकडो रौशन हैं चराग
रोज़ लाखो जल रहे परवाने शहर में।

एक तरफ़ है लाश तो दूसरी तरफ़ खुशी
एक दूसरे से कितने हैं बेगाने शहर में।

जहां भी बस नज़र गई ऊंचे ऊंचे मकान
ढूंढते हैं फिर भी सब ठिकाने शहर में।

दर्द है तन्हाईयां रुसवाईयां यहां
फिर भी हैं जीने के कुछ बहाने शहर में।

Dharmendra mannu

इस शहर में मकान दीखते हैं...

इस शहर में मकान दिखते है
दर्दो ग़म के दुकान दिखते हैं

आदमी इंच भर का दिखता है
टुकडो में आसमान दिखते है

हर एक चीज़ अपनी जगह है खडी
सिमटे सिमटे सामान दिखते हैं

टूटी टूटी सी हंसी लगती है
बिखरे बिखरे ज़बान दिखते हैं
......
धर्मेन्द्र मन्नु

दाग दिल के गहरे हैं...

दाग दिल के गहरे हैं
हर नज़र पे पहरे हैं।

दर्द बेंचे जा रहे हैं
ज़ख़्म भी सुनहरे हैं

होठों पे मुस्कान ओढे
लोग खुद के कतरे हैं

लब पे कुछ शिकवा नही
लोग गुंगे बहरे हैं

किसको क्या मैं नाम दूं
एक से सब सेहरे हैं

चेहरों पे चेहरे सजे हैं
जाने कितने चेहरे है।

धर्मेन्द्र मन्नू