Friday 21 October 2016

तक्षशीला और नालंदा खंडहरों में ढह गया।

क्या था इक इतिहास और भूगोल, अब क्या रह गया
तक्षशीला और नालंदा खंडहरों में ढह गया।

तुम जहां से आए थे क्या था वहां पहले कभी
मुड़ के देखो पाओगे कि अब वहां क्या रह गया।

कौन कहता है कभी हस्ती कोई मिटती नहीं
देख लो पीछे कभी कि कारवां क्या रह गया।

आए और तोड़ा हमारे देश को और धर्म को
अपने घर में अब तो इक कोना हमारा रह गया।

लहराता था जो पताका विश्व के हर छोर पर
प्यारा वो भगवा हमारा अब कहाँ पे रह गया।

बौद्धिकता की खोल में सच से न अब नज़रें चुरा
घर में आफत आएगी तो पूछोगे क्या रह गया

धर्मेंद्र मन्नु

Tuesday 21 June 2016

सारी दुनिया एक सुर में कह रही है...

हम लगे हैं बचाने में
पर्यावरण को
आह्वान कर रहे हैं सबको
आगे आने के लिए
लेखक कविताओं कहानियों लेखों से
लोगों को जगा रहे हैं,
शिक्षक स्कूलों कॉलेजों में पेड़ों के काटने से होने वाले नुकसान समझा रहे हैं
बच्चे सडकों पे जुलूस निकाल पर्यावरण संरक्षण के नारे लगा रहे है,
नेता पर्यावरण पे लगातार भाषण दे रहे हैं
वैज्ञानिक सम्मलेन कर रहे हैं
पत्रकार लेख लिख रहे हैं
टीवी दुनिया नष्ट होने तक की बात कह रहे हैं
फिल्मकार फिल्में बना रहे हैं
गीतकार गीत लिख रहे हैं
गायक उत्तरी धुर्व में कंसर्ट कर
पिघलते बर्फ पर अपनी चिंताए जता रहे हैं
दो लोग बैठते हैं तो बात होती है सूखे
और गर्मी बढ़ने के कारणों की
सारी दुनिया एक सुर में कह रही है
धरती बचाने को, आसमान बचाने को,
पेड़ बचाने को, पहाड़ बचाने को
नदी बचाने को....
ना जाने किस से कह रही है...

धर्मेन्द्र मन्नु

Sunday 22 May 2016

इंकलाब के नाम का हलवा बना के खा रहा है...

इंकलाब के नाम का हलवा बना कर खा रहा है
जिसको देखो सड़कों पे नारे लगाता जा रहा है।

दस दिनों से बैठा है बंदा वो देखो अनशन पे
दूसरे की पत्नी को अपना बताता जा रहा है।

पकड़े है कितनी सफाई से तराजू हाथों में
रुई, लोहे के वजन को इक बनाता जा रहा है।

धर्म सारे एक जैसे हर कोई ये जानता है
कौन है जो इस हरे पर खूं चढ़ाता जा रहा है।

एक गधे की टांग टूटने पर तड़प उठता है दिल
गाय और बकरे की वो दावत उड़ाता जा रहा है।

आदमी जब से बना इंसान तब से गत बनी
पैसों की खातिर जहाँ श्मसां बनाता जा रहा है।

धर्मेन्द्र मन्नु