इंकलाब के नाम का हलवा बना कर खा रहा है
जिसको देखो सड़कों पे नारे लगाता जा रहा है।
दस दिनों से बैठा है बंदा वो देखो अनशन पे
दूसरे की पत्नी को अपना बताता जा रहा है।
पकड़े है कितनी सफाई से तराजू हाथों में
रुई, लोहे के वजन को इक बनाता जा रहा है।
धर्म सारे एक जैसे हर कोई ये जानता है
कौन है जो इस हरे पर खूं चढ़ाता जा रहा है।
एक गधे की टांग टूटने पर तड़प उठता है दिल
गाय और बकरे की वो दावत उड़ाता जा रहा है।
आदमी जब से बना इंसान तब से गत बनी
पैसों की खातिर जहाँ श्मसां बनाता जा रहा है।
धर्मेन्द्र मन्नु
जिसको देखो सड़कों पे नारे लगाता जा रहा है।
दस दिनों से बैठा है बंदा वो देखो अनशन पे
दूसरे की पत्नी को अपना बताता जा रहा है।
पकड़े है कितनी सफाई से तराजू हाथों में
रुई, लोहे के वजन को इक बनाता जा रहा है।
धर्म सारे एक जैसे हर कोई ये जानता है
कौन है जो इस हरे पर खूं चढ़ाता जा रहा है।
एक गधे की टांग टूटने पर तड़प उठता है दिल
गाय और बकरे की वो दावत उड़ाता जा रहा है।
आदमी जब से बना इंसान तब से गत बनी
पैसों की खातिर जहाँ श्मसां बनाता जा रहा है।
धर्मेन्द्र मन्नु
Insani hukook par behtreen tarjumani, adab ko itna khiobsurat tohfa dene ke liye mubarak
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया जनाब... इस हौसला अफ़ज़ाई के लिए...
Deleteबहुत बहुत शुक्रिया जनाब... इस हौसला अफ़ज़ाई के लिए...
Delete