SHANTI NAHI SAMADHAAN CHAHIYE...
Sunday, 22 May 2011
इस शहर में मकान दीखते हैं...
इस शहर में मकान दिखते है
दर्दो ग़म के दुकान दिखते हैं
आदमी इंच भर का दिखता है
टुकडो में आसमान दिखते है
हर एक चीज़ अपनी जगह है खडी
सिमटे सिमटे सामान दिखते हैं
टूटी टूटी सी हंसी लगती है
बिखरे बिखरे ज़बान दिखते हैं
......
धर्मेन्द्र मन्नु
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