Monday, 17 March 2014

तुम्हारी खामोशी……

जब मैने कहा था
एक सत्य
अपने आधे पके आधे कच्चे
शब्दों में,
रात के अंधेरे में बजी होंगी
घंटियां तुम्हारे कानों में
मेरे असिम आग्रह की,
क्या तुमने सचमुच
नही समझा था
मेरा सत्य।
बह रहा था जब
मेरा सत्य, तुम्हारी खामोशी
के साथ, हवाओं में
क्या नही था एहसास
तुम्हे उस ऊंचाई का ।
आज जब कि तुम्हारी खामोशी
बिखर चुकी है
टूट कर,
और मेरा सत्य
लटका है त्रिशंकू की तरह
अनंत ऊंचाई में
असहाय ।
समझ पा रहा मैं
कौन है गुनहगार
मेरा सत्य या
तुम्हारी खामोशी……

               धर्मेन्द्र मन्नु

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