वो हार रहे हैं…
रोज़ जंग हार रहे है…
जब बारूद लगाकर
बेदर्दी से उड़ा दिये जाते हैं
तो वो भी चीखते हैं…
उसी तरह जैसे
बम के धमाको में
इन्सान्…
जब उनके शरीर पर
आरियां और कुल्हाड़िया
चलती है तो वो भी
हंकरते हुए उसी तरह
ज़मीन पर गीरते हैं
जैसे इन्सान…
मगर वो लड़ रहे हैं…
एक गुरिल्ला युद्ध की तरह…
जब भी मौका मिलता है
टूट पड़ते हैं आसमान से…
ज़मीन से…
और अपने हर दर्द की भड़ास
निकालते हैं और फ़िर
अटहास करते है…
जैसे हमलों के बाद
नक्सलाईट जंगलों में
जश्न मनाते हैं…
धर्मेन्द्र’मन्नु
No comments:
Post a Comment