Wednesday, 19 March 2014

ऐसा रोज़ होता है....

दैत्य के भयानक पंजे की तरह
गिरता है एक जाल
दबोच लेता है
मछलियों को
और निकल आता है
किसी सतह पर
और ऐसा रोज़ होता है
उनके साथ
अनगिनत बार……
मछलियां भी जलाती होंगी
मोमबती,
अपनी छोटी सी दुनिया में कहीं
किसी पत्थर के सामने
अपनों के मरने पर ,बिछड़ने पर
बहाती होंगी आंसु ।

बहेलिया आता है , लगाता है
जाल
बैठते हैं निरिह पंछी, फ़ंसते हैं
कैद होकर टंग जाते हैं
किसी आंगन
या खिड़की पर उम्र भर के लिये
लड़ते हैं आपस में
रोम के गुलामों की तरह
करते हैं मनोरंजन
या फिर
बन जाते हैं निवाला ।
क्या कोई ऐसा भी दिन
आयेगा, मछलियां फाड़ देंगी जाल
पंछी टकरा जायेंगे बन कर
आत्मघाती दस्ता
हवाईजहाज़ों से
कोई चिड़िया
चोच में लेकर आग
गिरा देगी बस्तियों पर
एक संवेदन हीन सभ्यता से
रची बसी बस्तियों पर…………

                         धर्मेन्द्र मन्नु

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