मैं जानता हूँ दर्दे-जिगर ठीक नही है।
पर क्या करूँ मैं, मेरी उमर ठीक नही है।
वो कहते हैं, मस्ज़िद में खुदा ही नहीं होता
विश्वास है, झुक जाती कमर ठीक नही है।
जब भी किसी की उँगली उठी, खूँ उबल पडा
मैं मानता हूँ ज़िक्रे-समर ठीक नही है।
जी चाहता है उनको मैं ग़जल में ढाल दूँ
पर क्या कहूँ मैं, मेरी बहर ठीक नही है।
ऐसा है रास्ता, कोई मंज़िल नही जिसकी
सब कहते हैं कि ऐसा सफ़र ठीक नही है।
धर्मेंद्र मन्नू
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