Thursday 12 December 2013

उठो चलो बढाओ कदम

उठो चलो बढाओ कदम
जब तलक है दम में दम

मंज़िलों के आगे भी हैं
और मंज़िलें कई
खत्म हुई राह एक
दूसरी शुरु हुई
पडाव दर पडाव
नई पर्वतें चढेंगे हम

मोतियों के वास्ते
समन्दरों को छान लें
रौशनी के वास्ते
सूरज को आओ बांध लें
जगत के जर्रे जर्रे में
रौशनी भरेंगे हम

हवा से तेज़ बहते हैं
नदी से तेज़ धार है
सीने में हैं सच्चाईयां
होंठों पे प्रेम राग है…
ठान लेंगे दिल में जो

तो दुनिया को बदलेंगे हम्…

Dharmendra Mannu

Saturday 18 May 2013

और दीवारों के गाल सुर्ख हो गये……


आज जब मैने बन्द कमरे से
खुद को उठाकर
सीधा उदग्र
लम्बी सी सड़क के उपर
रखा और कहा
ले चलो वहां जहां
ले जाना चाहो……
तो सड़क मुस्कुरा कर चल पड़ी
जब पंछी चहक रहे थे
और उनके सुर में सुर मिलाने के लिये
मैने गाना चाहा तो
हवाओं ने पेड़ की साखों पे
थपकियां देकर
साज़ बजाना शुरु कर दिया,और
पत्ते मंद मंद झूमने लगे
ये देखकर सूरज
हौले से हंस पड़ा
और उसके होंठो से
रंग झड़ने लगे,और मैं
उसमें भींगने लगा।
लौटा तो दीवारों ने घेर लिया
और कहा —
कहां चले गये थे
छोड़ कर हमें
उदास तन्हा अकेला ?
सुनकर ये मैने
खिड़कियां खोल दी और
जेब से रंग निकाल कर
फेंकने लगा उनपर
दोनो हाथों से, और
दीवारों के गाल सुर्ख हो गये……
                     धर्मेन्द्र मन्नु