Saturday 18 May 2013

और दीवारों के गाल सुर्ख हो गये……


आज जब मैने बन्द कमरे से
खुद को उठाकर
सीधा उदग्र
लम्बी सी सड़क के उपर
रखा और कहा
ले चलो वहां जहां
ले जाना चाहो……
तो सड़क मुस्कुरा कर चल पड़ी
जब पंछी चहक रहे थे
और उनके सुर में सुर मिलाने के लिये
मैने गाना चाहा तो
हवाओं ने पेड़ की साखों पे
थपकियां देकर
साज़ बजाना शुरु कर दिया,और
पत्ते मंद मंद झूमने लगे
ये देखकर सूरज
हौले से हंस पड़ा
और उसके होंठो से
रंग झड़ने लगे,और मैं
उसमें भींगने लगा।
लौटा तो दीवारों ने घेर लिया
और कहा —
कहां चले गये थे
छोड़ कर हमें
उदास तन्हा अकेला ?
सुनकर ये मैने
खिड़कियां खोल दी और
जेब से रंग निकाल कर
फेंकने लगा उनपर
दोनो हाथों से, और
दीवारों के गाल सुर्ख हो गये……
                     धर्मेन्द्र मन्नु

No comments:

Post a Comment