Wednesday 19 March 2014

डर लगता था...

डर लगता था
पहले
एकांत निर्जन और सुनसान जगहों से
गुजरते हुए
दिखता जाता था कोई अगर
अचानक
तो मिलता था सुकुन कि
कोई तो मिला
ऐसा था विश्वास इंसान का
इंसान पे

आज
गुजरते हुए सुनसान रास्तों से
अगर कोई मिलता है
तो डर जाता है मन
न जाने कौन है
कैसा है
क्या होगा
ज़माना बहुत बदल गया है
दादा जी कहते हैं

            धर्मेन्द्र मन्नु

एक सवाल चिपक गया है...

एक सवाल चिपक गया है
ज़बान से
जैसे चिपका होता है
स्वाद
ढूंढता हूं हल
पूछता हूं घर की
नोनी लगी लाल ईटों से
और टपकने लगता है उनसे खून,
पूछता हूं बंजर पडी खेतों से
और फट जाती हैं दरारें गहरी,
ठूंठ पेंड़ों से, सूखे कूंओं से,
जली रोटीयों से,
उन आंखों  से जिनके आंसू
सूख चुके हैं शायद
और जो मिलता है जवाब
होता है इतना कड़वा
कि नही उतरता हलक के नीचे
पूछता हूं सूरज से
और जलने लगता हूं
उसकी तपिश में
पूछता हूं चांद से, और
पाता हूं अपने को
घुप्प अंधेरों में
और डर जाता हूं मैं।
डर जाता हूं अपने सवाल की
भयावहता से।
सोचता हूं इसे चिपका दूं
तुम्हारे माथे पे
बना कर एक बिंदी
और खो जाऊं तुम्हारी सुंदरता में
भयावह अंधेरों से दूर
कडवी सच्चाईयों से आंखें मूंद कर्……………।
                                    धर्मेन्द्र मन्नु


ऐसा रोज़ होता है....

दैत्य के भयानक पंजे की तरह
गिरता है एक जाल
दबोच लेता है
मछलियों को
और निकल आता है
किसी सतह पर
और ऐसा रोज़ होता है
उनके साथ
अनगिनत बार……
मछलियां भी जलाती होंगी
मोमबती,
अपनी छोटी सी दुनिया में कहीं
किसी पत्थर के सामने
अपनों के मरने पर ,बिछड़ने पर
बहाती होंगी आंसु ।

बहेलिया आता है , लगाता है
जाल
बैठते हैं निरिह पंछी, फ़ंसते हैं
कैद होकर टंग जाते हैं
किसी आंगन
या खिड़की पर उम्र भर के लिये
लड़ते हैं आपस में
रोम के गुलामों की तरह
करते हैं मनोरंजन
या फिर
बन जाते हैं निवाला ।
क्या कोई ऐसा भी दिन
आयेगा, मछलियां फाड़ देंगी जाल
पंछी टकरा जायेंगे बन कर
आत्मघाती दस्ता
हवाईजहाज़ों से
कोई चिड़िया
चोच में लेकर आग
गिरा देगी बस्तियों पर
एक संवेदन हीन सभ्यता से
रची बसी बस्तियों पर…………

                         धर्मेन्द्र मन्नु

यवनिका...

यवनिका और गगनिका
के बीच
एक छोटी सी जगह
सिमट जाती है जिसमे
सारी दुनिया
अमेरिका, रोम और
रसिया ।
समस्त सभ्यता
सारी संस्कृति
युद्ध और शान्ति
संदेश और क्रान्ति
सुख – दुख
आंसू – हंसी
और एक कलाकार की
सम्पूर्ण संतुष्टि…………।

           धर्मेन्द्र मन्नु

Monday 17 March 2014

सहमी सहमी हर एक नज़र क्यो है...

सहमी सहमी हर एक नज़र क्यो है।
सबके हाथों में एक खंज़र क्यो है।

सबके दामन में लहू दिखता है
शहर ये बन गया जंगल क्यों है।

दूर तक दिखती नही परछाई
सूना सूना सा हर डगर क्यों है ।

अपनों की भींड में सब अजनबी है
दिलों में इस कदर नफ़रत क्यों है।

सर्द रातों में जागती आंखें
आंखों से नींद दरबदर क्यों है।

धर्मेन्द्र मन्नु

मोहब्बत कभी ना हमें रास आई...

मोहब्बत कभी ना हमें रास आई।                      
जब भी दिल दिया तो चोट खाई।

उम्र भर जिनका इन्त्ज़ार किया मैने
मेरे वास्ते एक पल भी ना गवाई।

उनके दर्द से रिश्ता जोडा था मैने
वह न बांट सके थोडी सी तन्हाई।

जब जब बिछे हम उनकी राहों में
तब तब उन्होनें एक ठोकर लगाई।

रात काजल सी कटी मेरी
उन्होने खुब रौशनी जलाई।

धर्मेन्द्र मन्नु

मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे...

मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे
वह शरेशाम महफ़िल सजाते रहे

हम तो उनके ही गम में तडपते रहे
वह हमारे जिगर को जलाते रहे

हम तो जीते रहे उनको ही देखकर
वह तो हमसे ही नज़रें चुराते रहे।

धर्मेन्द्र मन्नु


जज्बा-ए-इश्क़ निकल जाएगा रफ़्ता रफ़्ता...

जज्बा-ए-इश्क़ निकल जाएगा रफ़्ता रफ़्ता।
दिल मेरा उनको भूल जाएगा रफ़्ता रफ़्ता।

अभी ये हाल तडपते हैं हम उनके ग़म में
दर्द है जो दवा बन जाएगा रफ़्ता रफ़्ता।

उनसे बिछडे अभी तो कुछ ही साल बीते हैं
वक्त मरहम तो लगाएगा पर रफ़्ता रफ़्ता।

ज़िन्दगी मौत से बदतर अभी तो लगती है
मौत ही ज़िन्दगी बन जाएगी रफ़्ता रफ़्ता।

चरागे इश्क जल रहा है जो मेरे दिल में
जलते जलते वो भी बुझ जाएगा रफ़्ता रफ़्ता।

वक्त से पहले मैं क्यो मौत को लागाऊं गले
ज़िन्दगी खत्म हो ही जाएगी रफ़्ता रफ़्ता।

पहल करुं मैं क्यों,मैं क्यों क़दम बढाऊं आखिर
मौत जब खुद ही पास आएगी रफ़्ता रफ़्ता।
धर्मेन्द्र मन्नु

सिर्फ़ तुम्हे………

तुम समा गई हो
मेरे वजूद में
जैसे समा जाता है
सूरज
वृक्ष की हरी पत्तियों में
समा जाती हैं बारिश की बूंदें
धरती के रोम रोम में
और कोयल की कूक
सूने मन में ।
मैं नही जानता, ये
सच है या छलावा
मगर इन सारी संभावनाओं से
परे,
सच के झूठ होने तक
अपने पूरे वजूद के साथ
जीना चाहता हूंमैं
तुम्हे,
सिर्फ़ तुम्हे………



            धर्मेन्द्र मन्नु 

तुम्हारी खामोशी……

जब मैने कहा था
एक सत्य
अपने आधे पके आधे कच्चे
शब्दों में,
रात के अंधेरे में बजी होंगी
घंटियां तुम्हारे कानों में
मेरे असिम आग्रह की,
क्या तुमने सचमुच
नही समझा था
मेरा सत्य।
बह रहा था जब
मेरा सत्य, तुम्हारी खामोशी
के साथ, हवाओं में
क्या नही था एहसास
तुम्हे उस ऊंचाई का ।
आज जब कि तुम्हारी खामोशी
बिखर चुकी है
टूट कर,
और मेरा सत्य
लटका है त्रिशंकू की तरह
अनंत ऊंचाई में
असहाय ।
समझ पा रहा मैं
कौन है गुनहगार
मेरा सत्य या
तुम्हारी खामोशी……

               धर्मेन्द्र मन्नु

Sunday 16 March 2014

वो हार रहे हैं…?

वो हार रहे हैं
रोज़ जंग हार रहे है
जब बारूद लगाकर
बेदर्दी से उड़ा दिये जाते हैं
तो वो भी चीखते हैं
उसी तरह जैसे
बम के धमाको में
इन्सान्
जब उनके शरीर पर
आरियां और कुल्हाड़िया
चलती है तो वो भी
हंकरते हुए उसी तरह
ज़मीन पर गीरते हैं
जैसे इन्सान
मगर वो लड़ रहे हैं
एक गुरिल्ला युद्ध की तरह
जब भी मौका मिलता है
टूट पड़ते हैं आसमान से
ज़मीन से
और अपने हर दर्द की भड़ास
निकालते हैं और फ़िर
अटहास करते है
जैसे हमलों के बाद
नक्सलाईट जंगलों में

जश्न मनाते हैं

धर्मेन्द्र’मन्नु

मुझे आदमखोर ना बनाना…

पिता तुम इतने
स्वार्थी क्यों हो
मेरे भविष्य की चिन्ता में
तुम इतने मतलबी हो गये हो…
कि दूसरों के बच्चों की तुम्हे
कोई फ़िकर नही होती है…
जब तुम किसी मज़दूर से काम लेते हो…
उसकी मज़दूरी का एक
हिस्सा मार जाते हो
जब किसी सरकारी आफ़िस में काम करते हो…
घुसखोरी के नये कीर्तीमान
स्थापित करते हो…
नेता बनते ही घोटालों का इतिहास रच देते हो…
जहां जिस पद पे रहे हो…
मेरे लिये लाखो बच्चों का हक़ मारा…
दूध, अन्न, स्कूल, स्लेट, पेंसिले छीन ली…
किसी बच्चे को भीख मांगते देख कर
एक पल के लिये भी
तुम्हारा मन नही पसीजता
कि ये भी किसी के बच्चे हैं…
मुझे एसी में रखने के लिये ना जाने
कितने लोगों के सर के पंखे बेंच दिये…
मुझे कार देने के लिये
कितने बच्चों को साइकिलें भी मयस्सर ना होने दी…
मुझे ऐशोआराम में रखने के लिये
ना जाने कितनों का खून चुसा, जान ली
मुझे इनकी ज़रुरत नही है
देखो ना मेरे हाथ पैर हिल रहे हैं
मैं लूला लगड़ा पैदा नही हुआ हूं
मुझे सिर्फ़ तुम्हारा अच्छा मार्गदर्शन चाहिये
पिता मुझे दूध पिलाना
किसी बेबस मजबूर का
खून ना पिलाना… मुझे अन्न खिलाना, 
किसी का मांस ना खिलाना
मुझे आदमखोर ना बनाना… 

धर्मेन्द्र मन्नु

मां मेरी…

मां मेरी…
जब से दूर हुआ हूं तुमसे
और ज़्यादा नज़दीक हुआ हूं
ऐसा नहीं था
पहले तुम्हारे करीब नहीं था
मगर इस गहराई का एहसास नही था
लेकिन आज इतना दूर होने के बाद
ऐसा लगता है
जैसे डूबा हुआ हूं मैं तुझमें
चारो ओर हवा-पानी बन कर
फैली हो तुम…
हर चेहरा तुम सा लगता है…
सबकी आंखों में दिखाई देता है
तुम्हारा प्यार
छिप जाना चाहता हूं
सबकी गोद में
बन कर तुम्हारा बेटा…
सर रख कर सोना चाहता हूं
सबकी गोद में।

जब कभी अकेलेपन का
दर्द कचोटता है,
चाहता हूं बुला लूं तुम्हे
शब्दों के सहारे अपने पास
मगर तुम्हारा प्रेम
तुम्हारा स्नेह
तुम्हारी विशालता
मेरे छोटे छोटे शब्दों में
बंध नहीं पाते
शब्द जालों को तोड़कर
अनन्त ब्रह्मांड में फैल जाते हैं…
मेरे कमज़ोर शब्द
टूट टूट कर पन्नों से
परे बिखर जाते हैं
और कोरे कागज पर
बच जाता है
सिर्फ़ एक शब्द
‘मां’
और आंखों से टपके
तेरी यादों के चंद मोती…

धर्मेन्द्र’मन्नु’