Wednesday 19 March 2014

एक सवाल चिपक गया है...

एक सवाल चिपक गया है
ज़बान से
जैसे चिपका होता है
स्वाद
ढूंढता हूं हल
पूछता हूं घर की
नोनी लगी लाल ईटों से
और टपकने लगता है उनसे खून,
पूछता हूं बंजर पडी खेतों से
और फट जाती हैं दरारें गहरी,
ठूंठ पेंड़ों से, सूखे कूंओं से,
जली रोटीयों से,
उन आंखों  से जिनके आंसू
सूख चुके हैं शायद
और जो मिलता है जवाब
होता है इतना कड़वा
कि नही उतरता हलक के नीचे
पूछता हूं सूरज से
और जलने लगता हूं
उसकी तपिश में
पूछता हूं चांद से, और
पाता हूं अपने को
घुप्प अंधेरों में
और डर जाता हूं मैं।
डर जाता हूं अपने सवाल की
भयावहता से।
सोचता हूं इसे चिपका दूं
तुम्हारे माथे पे
बना कर एक बिंदी
और खो जाऊं तुम्हारी सुंदरता में
भयावह अंधेरों से दूर
कडवी सच्चाईयों से आंखें मूंद कर्……………।
                                    धर्मेन्द्र मन्नु


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