Sunday 16 March 2014

मां मेरी…

मां मेरी…
जब से दूर हुआ हूं तुमसे
और ज़्यादा नज़दीक हुआ हूं
ऐसा नहीं था
पहले तुम्हारे करीब नहीं था
मगर इस गहराई का एहसास नही था
लेकिन आज इतना दूर होने के बाद
ऐसा लगता है
जैसे डूबा हुआ हूं मैं तुझमें
चारो ओर हवा-पानी बन कर
फैली हो तुम…
हर चेहरा तुम सा लगता है…
सबकी आंखों में दिखाई देता है
तुम्हारा प्यार
छिप जाना चाहता हूं
सबकी गोद में
बन कर तुम्हारा बेटा…
सर रख कर सोना चाहता हूं
सबकी गोद में।

जब कभी अकेलेपन का
दर्द कचोटता है,
चाहता हूं बुला लूं तुम्हे
शब्दों के सहारे अपने पास
मगर तुम्हारा प्रेम
तुम्हारा स्नेह
तुम्हारी विशालता
मेरे छोटे छोटे शब्दों में
बंध नहीं पाते
शब्द जालों को तोड़कर
अनन्त ब्रह्मांड में फैल जाते हैं…
मेरे कमज़ोर शब्द
टूट टूट कर पन्नों से
परे बिखर जाते हैं
और कोरे कागज पर
बच जाता है
सिर्फ़ एक शब्द
‘मां’
और आंखों से टपके
तेरी यादों के चंद मोती…

धर्मेन्द्र’मन्नु’

No comments:

Post a Comment