Monday 17 March 2014

सिर्फ़ तुम्हे………

तुम समा गई हो
मेरे वजूद में
जैसे समा जाता है
सूरज
वृक्ष की हरी पत्तियों में
समा जाती हैं बारिश की बूंदें
धरती के रोम रोम में
और कोयल की कूक
सूने मन में ।
मैं नही जानता, ये
सच है या छलावा
मगर इन सारी संभावनाओं से
परे,
सच के झूठ होने तक
अपने पूरे वजूद के साथ
जीना चाहता हूंमैं
तुम्हे,
सिर्फ़ तुम्हे………



            धर्मेन्द्र मन्नु 

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